how did religion influence indian society
पिछली पोस्ट में पूरी बात तो हो नहीं पायी , आज उसी प्रसंग को आगे बढाती हूं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखनेवाले और विज्ञान की मोटी मोटी पुस्तके पडनेवाले मेरे पापाजी और अन्य भाइयों के कारण हमलोगों ने बचपन से ही धर्म पर तो नहीं , पर धार्मिक क्रियाकलापों पर जरूर ऊंगली उठाते पाया था। बडे संयुक्त परिवार में दादाजी और उनके सभी बच्चे कर्म पर विश्वास रखनेवाले तो दादी जी और उनकी बहूएं धर्म पर आस्था रखनेवाली , दोनो पार्टियों के मध्य पुरजोर बहस होना निश्चित था। ज्योतिष के अध्ययन के कारण पापाजी के समक्ष कुछ रहस्यों का पर्दाफाश हो चुका था , इसलिए तर्क करने में वो भयभीत नहीं होते थे। जबकि दूसरे भाई विज्ञान के नियमों तक की बात तो पूरे विश्वास से करते , पर धार्मिक या आध्यात्मिक बातों के लिए उनके पास तर्क नहीं होते , थोडा भय भी होता , सो चुप्पी साधने की मजबूरी होती। पर पापाजी के वैज्ञानिक नजरिये से हम बच्चों की भी तर्क शक्ति बढती गयी।
मेरे पापाजी प्रकृति के सारे नियमों को ही सर्वशक्तिमान मानते हैं , जिसके हिसाब से प्रकृति में एक एक क्रिया की प्रतिक्रिया तय है। उनके अनुसार किसी भी कर्मकांड का मुख्य उद्देश्य समाज के एक एक वर्ग और प्रकृति की एक एक वस्तु के महत्व को बढाने के लिए है , जो हमारे दूरदर्शी महापुरूषों द्वारा तय किया गया है , इनका ईश्वर से कोई लेना देना नहीं और इससे ईश्वर खुश हो जाएंगे , ऐसा नहीं है। ईश्वर या प्राकृतिक वातावरण को अपने पक्ष में करने के लिए हमें उन गुणों को विकसित करना होगा , जिसका प्राचुर्य हमें प्रकृति की ओर से मिला है। प्रत्येक व्यक्ति अच्छे या बुरे दोनो प्रकार के गुणों से युक्त होता है , अध्यवसाय द्वारा अपनी अच्छी आदतों को विकसित करना और संयम द्वारा बुरी आदतों को समाप्त करना हमारा लक्ष्य होना चाहिए और यही आध्यात्म तक पहुंचने का रास्ता है। इसके लिए कर्मकांड का सहारा भी लिया जा सकता है , पर इसे भी हर युग में परिवर्तनशील होना चाहिए।
पर धर्म के मामलों में पापाजी के इतने अच्छे दृष्टिकोण के बावजूद भी दादी जी और मम्मी के कारण हमलोगों में आस्तिकता आ ही गयी और पूजा पाठ , धर्म कर्म के मामले में हम आस्था अवश्य रखने लगे। वैसे इससे पापाजी को उतनी आपत्ति नहीं होती , सामान्य तौर पर व्रत वगैरह में भी नहीं , पर यदि घर पर किसी की तबियत खराब हो और व्रत करना जरूरी हो , तो इतना हल्ला मचाते कि व्रत करनेवाली की हालत और नाजुक हो जाती। ऐसे में व्रत की परंपरा हमारे घर से तो समाप्त ही हो गयी। मेरे ससुराल पहुंचने पर मेरी माताजी भी कर्मकांड को लेकर अधिक गंभीर नहीं दिखी। हालांकि वो खुद तो व्रत त्यौहार करती रही , पर हम बहूओं के लिए कुछ भी अनिवार्य नहीं रहने दिया , हां , पंडितों के अधिकार में अभी तक उन्होने कोई कटौती नहीं होने दी है। धार्मिक कर्मकांडों में कम रूचि के बावजूद भी मेरे मायके या ससुराल में कोई बडी हानि या असफलता को घटित होते नहीं देखा , जिससे इस मान्यता को बल मिले कि पूजा पाठ नहीं करने से कोई बडा नुकसान होता है।
मायके और ससुराल .. दोनो का मिला जुला प्रभाव ऐसा बना कि धार्मिक कर्मकांडों से तो मैं मुक्त ही हो गयी , पर मंदिर , मस्जिद , गुरूद्वारे या गिरजाघर को देखकर सर को झुका लेना , पर्व त्यौहार में पूजा पाठ में सम्मिलित होना .. ये दिलचस्पी तो बिल्कुल सहज ढंग से बनी रही । जीवन में समय समय पर उपस्थित होनेवाली ऐसी विपत्ति या परिस्थिति , जहां किसी का भी वश नहीं होता , विज्ञान के विकास के बावजूद एक संयोग या दुर्योग समस्या को बढा या घटा सकती है। किसी बडी शक्ति को याद करते हुए मेरा सर स्वयमेव झुक जाया करता है, उस समय मेरे सारे वैज्ञानिक तर्क एक ओर पडे होते हैं। पालन पोषण में ईश्वर के प्रति आस्था का ही परिणाम है कि किसी असामान्य परिस्थिति में मेरे साथ ईश्वर होते हैं , जो कुछ क्षण बाद , कुछ घंटों बाद , कुछ दिनों बाद , कुछ महीनों बाद , यहां तक कि कुछ वर्षों बाद मुझे उस मुसीबत से निकाल देते हैं , ऐसा मुझे अहसास होता रहता है , जो निर्मूल भी हो सकता है। पर ईश्वर की आसपास उपस्थिति को महसूस करने के कारण इतना समय व्यतीत कर लेने में मुझे दिक्कत नहीं होती।
पर हमारे व्यक्तित्व में पापाजी का कहीं न कहीं प्रभाव अवश्य था कि मैं इसे अपनी कमजोरी मानने लगी थी। हालांकि कर्तब्य पथ पर हमेशा ही चलती रही , फिर भी अपनी असफलताओं को भाग्यवाद से जोड दिया तथा अपने बच्चों को हमेशा कर्म के लिए प्रेरित करती रही । जैसे थे मेरे पापाजी , वैसे ही बच्चों के पापाजी , बच्चों के पालन पोषण के क्रम में ईश्वर के प्रति कोई आस्था ही नहीं विकसित होने दी। घर में बडे स्तर पर धार्मिक क्रियाकलापों की कमी के कारण पूजा पाठ , धर्म या आस्था से बच्चों का संबंध भी नहीं रहा , जिसका बाद में मुझे अफसोस हुआ। कम उम्र में ही बडे बेटे के समक्ष एक मुसीबत आयी , मुझे प्रतिदिन ईश्वर की रट्ट लगाते देखा , तो वह तो मानने लगा , पर छोटा तो अभी तक ईश्वर के अस्तित्व से इंकार करता है। जीवन में उतार और चढाव आना तो तय है , आस्तिक मुसीबत का समय प्रार्थना और संतोष में गुजार देते हैं , पर नास्तिकों के लिए मुसीबत का समय काटना अधिक मुश्किल होता है ।
कर्म के अनुसार या उससे अधिक सफलता से जीवन भर संयुक्त होने के बाद अपनी असफलता का कोई कारण नहीं समझ पाते , तब उनका दृष्टिकोण अंधविश्वासी हो जाता है , पापाजी के जीवन में आनेवाले सैकडों लोग ऐसे उदाहरण हैं। छोटे छोटे लोग तो साधनहीनता के कारण अंधविश्वास में पडे होते हैं , एक डॉक्टर के यहां जाने के पैसे न हो और झाडफूंक वाले से ही इलाज करा लिया तो इसमें कैसा अंधविश्वास ?? उससे समाज को कोई नुकसान नहीं होता। प्रकृति तो उसकी सलामती के लिए बीमारी से लड ही रही है , अधिकांश लोगों का दो चार दिनों में स्वस्थ होना तय है। पर बडे स्तर पर सर्वे हो , तो आपको मिलेगा कि आज जितने भी अंधविश्वासी हैं , वे कभी भी धार्मिक नहीं रहें , विपत्ति में पडकर धार्मिक होने का नाटक कर रहे हैं। सही भी है , आस्तिक तो अपना समय ईश्वर को आसपास महसूस करते हुए काट लेती हूं , भला नास्तिक अपना मुसीबत भरा समय किसके सहारे काटें ??